चाणक्य के सर्वश्रेष्ठ कथन

चाणक्य

चाणक्य का कल्पित चित्र
जन्म
अनुमानतः ईसा पूर्व ३७५
पंजाब
मृत्यु
अनुमानतः ईसा पूर्व २२५
पाटलीपुत्र
निवास
पाटलीपुत्र
अन्य नाम
कौटिल्य, विष्णुगुप्त
कार्य स्थान
तक्षशिला
व्यवसाय
चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री
उल्लेखनीय काम
अर्थशास्त्र (कई विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है)चाणक्य नीति



चाणक्य (अनुमानतः ईसापूर्व ३७५ - ईसा पूर्व २२५) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे 'कौटिल्य' नाम से भी विख्यात हैं। उन्होंने नदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।
मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम 'विष्णुगुप्त' था। विष्णुपुराणभागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथों में भी इसकी कथा बराबर मिलती है । बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है । चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलापिंडी के पास था) के निवासी थे । इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्य प्राप्ति से है । ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे।



चाणक्य के सर्वश्रेष्ठ कथन

कथन-1 : - बुद्धिमान वही है जो अपनी कमियों को किसी के सामने उजागर न करें. घर की गुप्त बातें, धन का विनाश, दुष्टों द्वारा धोखा, अपमान, मन का चिंता इन बातों को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए.


कथन-2 : - मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही दुःख भोगता है, अकेला ही मोक्ष का अधिकारी होता है और अकेला ही नरक जाता है. अतः रिश्ते-नाते तो क्षण भंगुर हैं, हमें अकेले ही दुनिया के मंच पर अभिनय करना पड़ता है.


कथन-3 : - विद्वान सब जगह सम्माननीय होता है. अपने उच्च गुणों के कारण देश-विदेश सभी जगह वह पूजनीय होता है .


कथन-4 : - विद्या ही सर्वोच्च धन है. विद्या के कारण ही खाली हाथ होने पर भी विदेश में भी धन कमाया जा सकता है तथा मान सम्मान बढ़ाया जा सकता है. विद्या के अभाव में उच्च कुल में जन्मा व्यक्ति भी सम्मान नहीं पाता है.


कथन-5 : - सुपात्र को दिए गए धन का फल अनन्त काल तक मिलता रहता है. भूखे को दिए गए भोजन का यश कभी ख़त्म                   नहीं होता. दान देना सबसे महान कार्य है.


कथन-6 : - बिना सत्य के सारा संसार व्यर्थ है. संसार में सब कुछ सत्य पर टिका है. सत्य के तेज से ही सूर्य तपता है, सत्य                     पर ही पृथ्वी टिकी है, सत्य के प्रभाव से ही वायु बहती है. सत्य ही जीवन का सच है.


कथन-7 : - गधा बहुत संतोषी जीव है. थकने पर भी वह बोझ ढोता रहता है, सर्दी-गर्मी कि उसे परवाह नहीं रहती, संतुष्ट भाव से जो मिल जाये, उसी से गुजर बसर करना, ये बातें गधे से सीखनी चाहिए.


कथन-8 : - जो मनुष्य न तो विद्वान है, न दानी है, न साधक, जिसमें शीलता का अभाव है, गुणहीन है, अधर्मी है- ऐसा मनुष्य पशु के समान है. ऐसे मनुष्य पृथ्वी पर भार के समान है.


कथन-9 : - भावनाएं इंसान को इंसान से जोड़ती हैं. दूर रहने वाला भी यदि हमारा प्रिय है तो वह हमेशा दिल के पास रहता है, जबकि पास रहने वाला भी हमारे दिल से कोसों दूर ही रहता है क्योंकि उसके लिए हमारे दिल में जगह नहीं होती.


कथन-10 : - क्रोध यमराज के समान है, वह सब कुछ नष्ट कर डालता है. संतोष ही सुख-वैभव प्रदान करता है. विद्या कामधेनु के समान है और तृष्णा वैतरणी के समान कष्टकर है. हमें इन बातों को व्यवहार में लाकर इनके अनुसार ही कार्य करना चाहिए.



कथन-11 : - एक गुण सैकड़ों अवगुणों को छिपा लेता है. जिस प्रकार केवड़ा में कांटे होते है, कीचड़ में पैदा होता है, फिर भी अपनी सुगंध से सबको अपनी और आकर्षित करता है. गुलाब में भी कांटे होते है, लेकिन उसकी मधुर सुगंध उसके इस दोष को ढक लेती है.


कथन-12 : - अपने रहस्य किसी के सामने भी भूल कर उजागर नहीं करने चाहिए, कुछ तो ऐसे कहे गए हैं, जिन्हें अपनी पत्नी से भी छिपाना चाहिए. अतः यहाँ पर सावधानी बरतनी चाहिए.


कथन-13 : - सीधेपन का लोग लाभ उठाते ही हैं. मनुष्य को इतना सरल-हृदयी नहीं होना चाहिए कि हर कोई उसे ठग ले. जंगल में सीधे खड़े वृक्षों को ही काटा जाता है. टेढ़े-मेढ़े वृक्ष बड़े सान से सीना ताने खड़े रहते है.


कथन-14 : - सुख सदैव किसी को नहीं मिलता है, ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जो कभी बीमार नहीं होता. कोई कुल निष्कलंक नहीं होता, कोई न कोई दोष निकल ही आता है. अतः हमें परिस्थिति के अनुसार ही आचरण करना चाहिए.


कथन-15 : - बुरे मित्र का न होना ही अच्छा है , बुरे राजा से सदैव बिना राजा होना अच्छा है, सदाचरण से रहित शिष्यों से शिष्यों का न होना ही अच्छा है और आचरण रहित स्त्री से बिना स्त्री के रहना ही अच्छा कहा गया है.


कथन-16 : - समझदार वही  है जो फूँक-फूँक कर कदम रखे, पानी को छानकर पिए, शास्त्रानुसार वाक्य बोले और सोच-विचार कर कर्म करे. इस तरह किए गए कार्य में सफलता अवश्य मिलती है .


कथन-17 : - विद्वान को सत्य बोलकर, लोभी-लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर और मूर्ख को मनमानी से न रोककर वश में किया जा सकता है . ऐसा व्यवहार करके इनसे कोई भी मनचाहा काम करवाया जा सकता है.


कथन-18 : - बगुले से एकाग्रचित्त होने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए. जिस प्रकार बगुला अपनी समस्त क्रियाओं को त्यागकर एकाग्रचित्त हो, अपने शिकार का ध्यान करता है और मुनिजनो को बगुले के तरह श्रेष्ठ आसन अपनाना चाहिए.


कथन-19 : - मूर्ख का हृदय सूना रहता है, पुत्र रहित घर सुना रहता है, लेकिन गरीब का घर इनसे कहीं अधिक सूना रहता है. अतः आदमी को परिश्रम करके इस पर विजय पानी चाहिए.



कथन-20 : - दुर्जन को साहस से, बलवान को अनुकूल व्यवहार से और समान शक्तिशाली को नम्रता से अथवा अपनी ताकत से वश में करना चाहिए.


कथन-21 : - अतिथि का सत्कार न करने वाला, थके-हारे को आश्रय न देने वाला और दूसरे का हिस्सा हड़प करने वाला, ये सब लोग महापापी होते हैं,


कथन-22 : - जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखता है, दूसरों के धन को मिट्टी के समान समझता है और परस्त्री को माता. वाही सच्चा विद्वान और ब्राह्मण है.


कथन-23 : - सिद्ध- औषधि का मर्म, गुप्त वार्ता, घर का भेद, अपमान कि बात, इन सभी को गुप्त रखना ही हितकर होता हैं.


कथन-24 : - यदि सिंह कि माँद में जाकर देखा जाए तो हो सकता है कि कीमती ‘ गजमुक्ता’ मणि मिल जाए, लेकिन सियार की गुफा में बछड़े कि पूंछ और गधे के चमड़े के अलावा कुछ नहीं मिल सकता. अर्थात् विद्वान पुरुषों की संगति से ज्ञान कि कोई न कोई बात सीखने को अवश्य मिलेगी, लेकिन मूर्ख से कुछ भी नहीं मिल सकता.


कथन-25 : -  दिन में दीपक जलना, समुद्र में वर्षा, भरे पेट के लिए भोजन और धनवान को दान देना व्यर्थ है.


कथन-26 : - कई तरह कि नेत्र हीनता होती है. कुछ जन्म से अंधे होते है. कुछ आँखें होते हुए भी अंधे है. काम-वासना में हुए अंधे को कुछ नहीं सूझता है, मदांध को भी कुछ नहीं दिखाई पड़ता. लोभी भी लोभ के वशीभूत नेत्र हीन हो जाता है . इस तरह के लोग आँख वाले अंधे कहलाते है.


कथन-27 : - विदेश में विद्या मित्र के समान होती है, औषधि रोगियों कि मित्र होती है, पत्नी घर में मित्र होती है और मृतक का मित्र होता है- धर्म .


कथन-28 : - प्रेम कि शिक्षा लेनी है तो भंवरे से लो. कठोर लकड़ी को छेद देने वाला भँवरा, कमल में स्वयं को बंद कर लेता है तो सिर्फ इसलिए कि उसे कमल से प्रेम होता है. यदि वह कमल को छेदकर बहार आ जायेगा तो कमल के प्रति उसका प्रेम रहा ही कहाँ?


कथन-29 : - ज्ञान से बढ़कर कोई दूसरा गुरु नहीं, काम-वासना के समान कोई दूसरा रोग नहीं, क्रोध के सामान कोई आग नहीं और अज्ञानता के जैसा शत्रु कोई नहीं.


कथन-30 : - मूर्ख को उपदेश शत्रु के समान लगता है. लोभियों अथवा कंजूसो को याचक (भिखारी) शत्रु सा लगता है. व्यभिचारिणी स्त्री को उसका पति शत्रु लगता है, तो चोरों को चंद्रमा शत्रु लगता है.


कथन-31 : - सिंह से हमें ये सीखना चाहिए कि काम छोटा हो या बड़ा पूरी शक्ति से करे. जिस प्रकार सिंह शिकार छोटा हो या बड़ा वह अपनी पूरी शक्ति से झपटता है.


कथन-32 : - नीम कि जड़ में मीठा दूध डालने से नीम मीठा नहीं हो सकता, उसी प्रकार कितना भी समझाओ, दुर्जन
व्यक्ति का साधु बनना मुश्किल है.


कथन-33 : - ब्राह्मण, गुरु, अग्नि, कुंवारी कन्या, बालक, और वृद्धों को पेरो से नहीं छूना चाहिए. ये सभी आदरणीय है.
हमें इन्हें आदर-सम्मान देना चाहिए.


कथन-34 : - भोजन महत्वपूर्ण नहीं है , महत्वपूर्ण है कार्य व उसके प्रति निष्ठा. पेट तो जानवर भी भर लेते हैं. अतः मानव बनो .


कथन-35 : - विद्या निरंतरता से अक्षुण्ण बनी रहती है. आलस्य से उसका लोप हो जाता है. धन यदि दूसरे के पास है तो अपना होने पर भी वह जरूरत पड़ने पर काम नहीं आता है. खेत में बिज न पड़े तो वह बंजर हो जाता है, उसी प्रकार कुशल सेनापति के अभाव में चतुरंगिणी सेना भी नष्ट हो जाती है.


कथन-36 : - मनुष्य स्वर्ग का आकांक्षी है, देवता मुक्ति चाहते हैं , निर्धन धन कि कामना करता है और पशु वाणी की. ये चार अभिलाषाएं चिर सत्य है.


कथन-37 : - कोई अगर यह समझ रहा है कि उसके कारण अनेक लोगों को रोजगार मिल रहा है , उनका पेट भर रहा है तो यह उसका भ्रम है . सृष्टि पालक ईश्वर है, तभी तो बच्चे के पैदा होते ही मां के स्तनों से स्वतः ही दुग्ध स्राव होने लगता है.


कथन-38 : - धन के अभाव में व्यक्ति को गरीब नहीं कहा जा सकता. धन तो कभी भी अर्जित किया जा सकता है, किन्तु मूर्ख- विद्याहीन धनवान होने पर भी हीन का हीन ही रह जाता है. समाज में उसे उचित स्थान नहीं मिलता .


कथन-39 : - अपनी संतानों को जो माता-पिता उचित शिक्षा नहीं दिलवाते, वे उनके शत्रु हैं.


कथन-40 : - समय का चक्र किसी के रोके नहीं रुकता, चलता रहता है. अतः समय को पहचानकर तदनुसार कर्म करना चाहिए.



कथन-41 : - गाय चाहे जो खा ले दूध ही देगी. इसी प्रकार विद्वान कैसा भी आचरण करे, वह निश्चित ही अनुकरणीय होगा, परन्तु यह तथ्य केवल समझदार ही समझ सकते है.


कथन-42 : - प्रतिदिन हमें कुछ न कुछ नया ग्रहण करना चाहिए, फिर चाहे वह एक श्लोक, उसका एक अंश अथवा एक शब्द मात्र ही क्यों न हो. एक-एक शब्द ही एक दिन विशाल समुद्र का रूप धारण कर लेता है.


कथन-43 : - मनुष्य रूप, यौवन और मदिरा में खोकर अपने आप को ही भूल जाता है, लेकिन जब उसे होश आता है तो नरक का द्वार उसके सामने होता है. अर्थात सूरा-सुंदरी का सुख मनुष्य को नरक के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता. इससे बचना ही श्रेयस्कर है.


कथन-44 : - ईश्वर की महिमा की थाह कोई नहीं पा सकता. वह पल भर में राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता है. धनी को निर्धन और निर्धन को धनी करना उसके लिए सहज है.


कथन-45 : - चिंतन सदैव अकेले में किया जाए, ताकि विचार भंग होने की संभावना न रहे . पढाई में दो, गायन में तीन, यात्रा में चार और खेती में पाँच व्यक्तियों का साथ उत्तम माना गया है. इसी प्रकार युद्ध में अधिक संख्या बल का महत्व बढ़ जाता है.


कथन-46 : - विद्वानों एवं साधुजन को स्त्री प्रपंच में नहीं फंसना चाहिए, क्योंकि अधिकांश घटनाएँ स्त्री के कारण ही हुई है.


कथन-47 : - कांच का मुकुट बनाकर पहन लिया जाए और मणि को पैरो में लटका लिया जाए तो भी बाजार में मणि का मूल्य मणि ही मिलेगा, कांच को कोई नहीं पूछेगा. अर्थात् सच्चाई कि आवाज को दबाया नहीं जा सकता, वह सार्वजनिक होती है. दूसरे शब्दों में विद्वान को चाहे किसी भी पद पर आरूढ़ कर दिया जाए, उसकी विद्वता कम नहीं होती. लेकिन किसी मूर्ख व्यक्ति को उच्च से उच्च पद पर बिठाकर भी विद्वान नहीं बनाया जा सकता.


कथन-48 : - रूठी पत्नी, लुप्त संपत्ति और हाथ से निकली भूमि वापस मिल सकती है, लेकिन मनुष्य जीवन पुनः नहीं मिल सकता, अतः दान-धर्म कर हमें अपना जीवन सफल बनाना चाहिए.


कथन-49 : - दूसरों का सहारा लेने पर व्यक्ति का स्वयं का अस्तित्व गौण हो जाता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर चंद्रमा का प्रकाश अपनी चमक खो बैठता है. अतः महान वही है जो अपने बल पर खड़ा है.



कथन-50 : - संग्रहित धन का व्यय होते रहने से ही उसमें निरंतर वृद्धि सम्भव है. जैसे तालाब का पानी एक ही जगह पड़ा रहने कि वजह से दूषित हो जाता है, वह पीने योग्य नहीं रहता- इसी प्रकार यदि धन का सदुपयोग न हो तो वह किसी काम का नहीं रहता है. 


कथन-51 : - किसी से अपना काम निकालना हो तो मधुर वचन बोलें. जिस प्रकार हिरण का शिकार करने के लिए शिकारी मधुर स्वर में गीत गाता है.


कथन-52 : - धन महत्वपूर्ण है, जिसके पास धन है, सब उसके अपने हैं. धनवान के लिए बुरे काम भी अच्छे हो जाते हैं .मूर्ख धनवान कि बात सब सुनते हैं और अनेक मूर्धन्य विद्वान बने रहते है. (आज के युग में ये शब्द कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं.)


कथन-53 : - कोयल का रूप उसका स्वर है, पतिव्रता होना ही स्त्रियों कि सुन्दरता है. कुरूप लोगों कि विद्या ही उनका स्वरूप है तथा तपस्वियों का रूप क्षमा करना है.


कथन-54 : - सभी औषधियों में अमृत प्रधान है. सभी सुखों में भोजन प्रधान है. सभी इन्द्रियों में आँख मुख्य है. सभी अंगों में सिर महत्वपूर्ण है.


कथन-55 : - व्यक्ति के आचरण से उसके कुल का परिचय मिलता है . बोली से देश का पता लगता है. आदर-सत्कार से प्रेम का और शरीर से व्यक्ति के भोजन का पता लगता है.


कथन-56 : - जिस शहर में विद्वान, बुद्धिमान, ज्ञानी पुरुष नहीं रहते, जहां के लोग दान नहीं करना जानते, जहाँ अच्छे काम करने में कोई चतुर न हो, किन्तु लूट- खसोट, बुरे चाल-चलन में सभी एक से बड़कर एक हों. ऐसी जगह को गंदगी का ढेर ही समझना चाहिए और वहां के लोगों को गंदगी के कीड़े .


कथन-57 : - जैसे फलों में गंध, तिलों में तेल, काष्ठ में अग्नि, दुग्ध में घी, गन्ने में गुड़ है, उसी तरह शरीर में परमात्मा है. इसे पहचानना चाहिए.


कथन-58 : - साधुजन के दर्शन से पुण्य प्राप्त होता है. साधु तीर्थों के समान होते हैं, तीर्थों का फल तो कुछ समय बाद मिलता है, किन्तु साधु समागम तुरंत फल देता है’


कथन-59 : - ईश्वर ना काष्ठ में है, न मिट्टी में, न ही मूर्ति में. वह केवल भावना में होता है. अतः भावना ही मुख्य है.


कथन-60 : - लक्ष्मी चंचल है. प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चंचल और नाशवान हैं. संसार में केवल धर्म ही निश्चल है.


कथन-61 : - काम मनुष्य का सबसे बड़ा रोग है. अज्ञान या मोह सबसे बड़ा शत्रु है. क्रोध मनुष्य को जला देने वाली भयंकर अग्नि है तथा आत्मज्ञान ही परम सुख है.


कथन-62 : - परमात्मा का ज्ञान होने पर देह का मोह मिट जाता है. तब मन जहाँ भी जाता है, वहीं समाधि लग जाती है.


कथन-63 : - धार्मिक कथाओं को सुनने पर, श्मशान में और रोगियों को देखकर व्यक्ति कि बुद्धि को जो वैराग्य हो जाता है. यदि ऐसा वैराग्य सदा बना रहे तो भला कौन संसार के इन बंधनों से मुक्त नहीं होगा.


कथन-64 : - जो  वस्तु दूर है, दुसाध्य है, वह सब ताप से साध्य है . तप सबसे प्रबल है.


कथन-65 : - जिसका हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से परिपूर्ण है उसे ज्ञान, मोक्ष, जटा, भस्म- लेपन आदि से क्या लेना देना.


कथन-66 : - जिस प्रकार अकेला चंद्रमा रात कि शोभा बढ़ा देता है, ठीक उसी प्रकार एक अकेला विद्वान पुत्र कुल को निहाल कर देता है.


कथन-67 : -  उस गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न ही गाभिन होती है . उसी प्रकार उस पुत्र के जन्म से क्या लाभ , जो न विद्वान हो और न ही ईश्वर का भक्त हो.


कथन-68 : - धन से धर्म की, योग से विद्या की, मृदुता से राजा कि तथा अच्छी स्त्री से घर कि रक्षा होती है.


कथन-69 : - जिन घरों में विद्वानों, ब्राह्मणों का आदर नहीं होता, वेदों-शास्त्रों आदि का पाठ-पठन अथवा कथा नहीं होती तथा यज्ञ नहीं किए जाते, ऐसे घरों को श्मशान कि तरह समझना चाहिए.


कथन-70 : - कट जाने पर भी चन्दन अपनी सुगंध नहीं त्यागता, बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी अपनी लीलाओं को नहीं छोड़ता. इसी प्रकार गरीब होने पर भी कुलीन अपने शील गुणों को नहीं छोड़ता.


कथन-71 : - अप्रिय बोलना, दुष्टों की संगति, क्रोध करना, स्वजन से बैर ये सब नरकवासियों के लक्षण हैं.


कथन-72 : - प्रजा के पाप का फल राजा, राजा के पाप का फल राजपुरोहित, शिष्य के पाप का फल गुरु और स्त्री के पाप का फल पति को भी भोगना पड़ता है.


कथन-73 : - हाथी को अंकुश से, सींग वाले प्राणियों को लाठी से, घोड़े को चाबुक से और दुर्जन को तलवार से वश में करना चाहिए.


कथन-74 : - पत्नी, संतान और साधुजन की संगति में दीन, हीन और दु:खीजन, को थोड़ा आराम मिल सकता है. लेकिन ये अंतिम पड़ाव नहीं है –निर्लिप्त जीवन यापन से ही हर तरह के कष्टों से मुक्ति संभव है.


कथन-75 : - अधिक पैदल चलने से आदमी बूढ़ा हो जाता है, घोड़ों को बांधकर रखा जाए तो वे बूढ़े हो जाते हैं, मैथुन के अभाव मैं स्त्री बुढ़िया हो जाती है और धूप में पड़े-पड़े वस्त्र जर्जर हो बुढ़ापे को प्राप्त होते हैं.


कथन-76 : - बिना मंत्री का राजा, नदी किनारे के वृक्ष और दूसरों के घर जाकर रहने वाली स्त्री -ये सभी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं.


कथन-77 : - शास्त्रों में पाँच माताओं का वर्णन है- राजा कि माता, गुरु माता, स्वयं कि माता. पत्नी कि माता, मित्र कि पत्नी. इन सभी का समान रूप से आदर करना चाहिए. इन पर कुदृष्टि रखने वाला महाचांडाल होता है.


कथन-78 : - कन्यादान एक बार होता है, राजाज्ञा एक बार होती है, विद्वान एक ही बार बोलता है. ये कुछ बाते केवल एक ही बार होती है. इनकी पुनरावृत्ति संभव नहीं है.


कथन-79 : - ताम्बे का बर्तन अम्ल से, कांस्य का पात्र भस्म से, नदी बहने से और स्त्री रजस्वला होने से शुद्ध होती है.


कथन-80 : - जिस प्रकार घिसने, तापने, काटने और पीटने से सोने का परीक्षण होता है. उसी प्रकार त्याग, शील, गुण, एवं कर्मों से पुरुष कि परीक्षा होती है.


कथन-81 : - ब्राह्मण उदरपूर्ति होने पर, सज्जन पराई संपत्ति पर, मोर बादल गरजने पर प्रसन्न होते हैं, लेकिन दुर्जन दूसरों को विपत्ति में देख कर प्रसन्न होते हैं. इनसे सावधान रहना चाहिए.


कथन-82 : - स्त्री से सम्बन्ध उसके रजस्वला होने के बाद स्थापित करना श्रेष्ठ मन गया है, क्योंकि रजस्वला होने के बाद स्त्री कुंवारी कन्या सी पुनीत हो जाती है. असमय मैथुन करना न तो नैतिक है और न ही स्वास्थ्य के लिए उचित है.


कथन-83 : - शरीर पर तेल लगाने के बाद, श्मशान से लौटने पर, हजामत बनवाने पर और स्त्री-प्रसंग( तुरंत बाद नहीं ) के बाद , जबतक स्नान नहीं किया जाता मनुष्य अपवित्र ही रहता है .स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह उचित है, लेकिन स्त्री-प्रसंग के तुरंत बाद नहाने का निषेध है.


कथन-84 : - संतानहीन राजा, मंत्र का अज्ञानी साधक और दान के बिना यज्ञ, यह सब मनुष्य को नष्ट कर सकते हैं . इनमें सावधानी रखनी चाहिए.


कथन-85 : - मूर्ख पुत्र, ऋण लेने वाला पिता, सुन्दर पत्नी और व्यभिचारिणी माता के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं, इन चारों शत्रुओं के होते मनुष्य घोर कष्ट से गिर जाता है.


कथन-86 : - समर्पित स्त्री पति के लिए सुबह में माता, दोपहर में बहन और रात्रि में वेश्या के समान व्यवहार करती है.


कथन-87 : - जो स्त्री पतिव्रता है, प्रेमी है, सत्य बोलती है, पवित्र और चतुर है- वह निश्चित ही वरणीय है. ऐसी स्त्री पाने वाला सचमुच ही सौभाग्यशाली होगा.


कथन-88 : - अग्नि, जल, मूर्ख, सर्प और राजा इनसे निकटता खतरनाक होती है. थोड़ी सी भी असावधानी बरतने से ये प्राण घातक सिद्ध हो सकते है. अतः इनसे सदैव सावधानी बरतनी चाहिए.


कथन-89: - पुरुषों कि अपेक्षा स्त्रियों में आहार दुगुना, बुद्धि चौगुनी, साहस छः गुना और काम भाव आठ गुना बताया गया है.


कथन-90 : - दान से ही हाथों कि सुन्दरता है न कि कंगन पहनने से. शरीर स्नान से शुद्ध होता है न कि चन्दन लगाने से. तृप्ति मान से होती है न कि भोजन से. मोक्ष ज्ञान से मिलता है न कि श्रृंगार से.


कथन-91 : - जो व्यक्ति उत्सव में, दुःख में अकाल पड़ने पर, संकट में, राजदरबार में तथा श्मशान में साथ दें वही सच्चा हितैषी है.


कथन-92 : - भोज्य पदार्थ, भोजन शक्ति, रति शक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति ये सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते. पूर्व जन्म में अखंड तपस्या से ही ऐसा सौभाग्य मिलता है.


कथन-93 : - जिसका चित स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है न ही वन में. लोगों के बीच में रहने पर उसे उनका साथ जलाता है तथा वन में अकेलापन सताता है.


कथन-94 : - भूमि से जल निकालने के लिए जमीं को खोदा जाता है. इसके लिए व्यक्ति को परिश्रम करना पड़ता है. इसी प्रकार गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी परिश्रम और सेवा करनी पड़ती है.


कथन-95 : - गुण भी योग्य विवेकशील व्यक्ति के पास जाकर ही सुन्दर लगता है, क्योंकि सोने में जड़ें जाने के बाद ही रत्न सुंदर लगता है.


कथन-96 : -  गुणी व्यक्ति भी आश्रय नहीं मिलने पर दुःखी हो जाता है, क्योंकि निर्दोष मणि को भी आश्रय की आवश्यकता होती है.


कथन-97 : - गुणों से ही मनुष्य महान बनता है, न कि किसी ऊँचे स्थान पर बैठ जाने से. राजमहल के शीर्ष पर बैठ जाने पर भी कौआ गरुड़ नहीं बनता.


कथन-98 : - अगर गुणवान व्यक्ति किसी गुणहीन व्यक्ति कि भी प्रशंसा करे तो वह बड़ा हो जाता है. अपनी प्रशंसा स्वयं करने पर तो इंद्र भी छोटा हो जाता है.


कथन-99 : - जिसके पास स्वयं अपनी बुद्धि नहीं है उसके लिए शास्त्र क्या कर सकते है. आँखों के अंधे के लिए दर्पण क्या करेगा. अर्थात् जो जन्म से ही मूर्ख है, जिसके पास अपनी बुद्धि न हो, शास्त्र उसका क्या भला कर सकते हैं. वह शास्त्रों से कुछ नहीं सीख सकता.


कथन-100 : - अगर मूर्ख व्यक्ति चारों वेद और अनेक धर्म शास्त्र पढ़ ले ,फिर भी जैसे सब्जी के रस में डूबा चमचा रस के स्वाद को नहीं जानता, वैसे ही मूर्ख अपनी आत्मा को नहीं जान पाता.


कथन-101 : - मधुर वाणी, दान देने में रुचि, देवताओं कि पूजा तथा ब्राह्मण को संतुष्ट रखना. इन लक्षणों वाला व्यक्ति इस लोक में स्वर्ग कि कोई महान आत्मा होती है.


कथन-102 : - युग का अंत होने पर भले ही सुमेरू पर्वत अपने स्थान से हट जाए और कल्प का अंत होने पर भले ही सातों समुद्र विचलित हो जाए, किन्तु सज्जन अपने मार्ग से विचलित नहीं होते.


कथन-103 : - योग्य स्वामी के पास आकर अयोग्य वस्तु भी सुन्दरता बढ़ाने वाली हो जाती है , किन्तु अयोग्य के पास जाने पर योग्य काम कि वस्तु भी हानिकारक हो जाती है .


कथन-104 : - दुष्टों से दुष्टता करने में कोई दोष नहीं है.


कथन-105 : - दुष्टों के मन, वचन, और सारे शरीर में विष होता है.

कथन-106 : - विषहीन सर्प को भी अपनी रक्षा के लिए फन फैलाना पड़ता है. (इसलिए शक्तिशाली न होते हुए भी शक्तिशाली होने का दिखावा करना आपकी रक्षा करता है.)

कथन-107 : - संसार रूपी इस वृक्ष के अमृत के समान दो फल है- सुन्दर बोलना और सज्जनों कि संगति करना.

कथन-108 : - सत्संगति से दुष्टों में भी साधुता आ जाती है, किन्तु दुष्टों की संगति से साधुओं में दुष्टता नहीं आती . मिट्टी ही फूलों कि गंध को अपना लेती है, लेकिन फूल मिट्टी कि गंध नहीं अपनाते.

कथन-109 : - उज्ज्वल कर्म करने वाला व्यक्ति यदि सैकड़ों वर्षों तक जीयें तो भी अच्छा है. किन्तु दोनों लोकों के विरुद्ध कार्य करने वाला व्यक्ति अगर पल भर भी जीये तो व्यर्थ है.

कथन-110 : - जिसमें गुण और धर्म है, वही मनुष्य जीवित माना गया है. गुण और धर्म से रहित मनुष्य का जीवन व्यर्थ है .

कथन-111 : - दुष्ट और सांप में सांप अच्छा है क्योंकि सांप तो एक बार डसता है किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है .

कथन-112 : - दुष्ट व्यक्ति दूसरे की उन्नति देखकर जलता है .वह स्वयं उन्नति नहीं कर सकता, इसलिए निंदा करने लगता है.

कथन-113 : - हाथी से एक हजार हाथ दूर ,घोड़े से सौ हाथ दूर और सींग वाले जानवरों से दस हाथ दूर रहना चाहिए लेकिन दुष्टों से बचाव के लिए वह स्थान ही छोड़ देना चाहिए, जिसके पास दुष्ट रह रहा है.

कथन-114 : - दुष्टों और काँटों का दो ही प्रकार का उपचार है- जूतों से कुचल देना या दूर से ही उन्हें देखकर मार्ग बदल लेना .
कथन-115 : - दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात हो या दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो.                                                                            


कथन-116 : - पराई स्त्री के साथ व्यभिचार करने वाला, गुरु और देवालय का धन हरण करने वाला और हर प्रकार के प्राणियों के साथ रहने वाला व्यक्ति यदि ब्राह्मण भी है तो वह चांडाल के सामान है

कथन-117 : - पशुओं में कुत्ता, पक्षियों में कौआ, और मुनियों में पापाचरण करने वाला चांडाल कहलाता है, साथ ही परनिंदा करने वाला, चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, चांडाल कहलायेगा.


कथन-118 : - शास्त्रों में पाँच पिता बताये गए है: जन्मदाता, विद्या देने वाला गुरु, भय से बचाने वाला, यज्ञ से पवित्र करने वाला तथा धन देने वाला. इन सभी को अपने पिता समान आदर सम्मान देना चाहिए.


कथन-119 : - आदमी पर जब विपदा आती है तो वह अपना चोला बदल लेता है. शक्तिहीन होने पर व्यक्ति साधु बन जाता है. धनहीन होने पर ब्रह्मचारी, अस्वस्थता में ईश्वर भजन याद आता है, बुढ़ापे में स्त्रियाँ पतिव्रता होने का प्रदर्शन करने लग जाती हैं. ये सब ढोंग है. शक्तिशाली अनायास ही साधु नहीं बनता, धनवान कभी ब्रह्मचारी नहीं बनता, स्वस्थ होने पर व्यक्ति अपने ही राग रंग में खोया रहता है, उसे ईश-स्तुति का ख्याल नहीं रहता और यौवन से भरपूर स्त्री मन वचन से कभी पतिभक्त नहीं हो सकती.

कथन-120 : - शरीर कि सुन्दरता के मोह में पड़कर व्यक्ति पथ भ्रष्ट हो जाता है, शरीर और चेहरे कि सुन्दरता का आकर्षण व्यर्थ है. हर स्त्री का सुख एक समान है, अतः व्यर्थ ही इस मृग- मरीचिका में पड़ना अनुचित है.


कथन-121 : - अन्न से बढ़कर कोई दान नहीं होता. गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है और माता से श्रेष्ठ कोई नहीं है.


कथन-122: - संतोषी राजा, असंतोषी ब्राह्मण, लज्जावती वेश्या, और लज्जाहीन पत्नी- ये जीवन में कभी सुख-शांति और संपन्नता नहीं पा सकते. संतोषी राजा संतुष्टि के कारण राज्य का विकाश नहीं कर पता है. असंतोषी ब्राह्मण और अधिक लालसा के कारण अनाचरण पर उतर आता है. वेश्या अगर लज्जाशील हो तो उसका कामकाज बाधित होगा और लज्जाहीन पत्नी जग-हंसाई का कारण बनती है.


कथन-123 : - बिना गुरु के केवल पुस्तकों से ही ज्ञान प्राप्त करने वाला अवैध गर्भधारण करने वाली नारी के सामान होता है. जिस प्रकार अवैध संतान को समाज में उचित स्थान नहीं मिल पाता, उसी प्रकार बिना गुरु के प्राप्त ज्ञान को सम्मान नहीं मिलता, उसका कोई आधार नहीं होता है.


कथन-124 : - अपमान, कर्ज का बोझ, दुष्टों कि सेवा, अनुसरण और पत्नी कि मृत्यु आदि बिना आग के ही शरीर को जला देते हैं .


कथन-125 : - पति कि इच्छा के विरुद्ध पत्नी को कोई कार्य नहीं करना चाहिए. यहां तक कि पति की इच्छा के विरुद्ध उपवास-व्रत भी नहीं करने चाहिए, क्योंकि इस तरह पति कि आयु कम होती है और पत्नी को घोर नरक का पाप मिलता है.


कथन-126 : - ब्राह्मण, राजा, और सन्यासी सदैव भ्रमणशील होने चाहिए, इससे उनका मान बढ़ता है ,लेकिन स्त्री भ्रमणशील होने पर पतित मानी जाती है.


कथन-127 : - स्त्री सब कुछ कर सकती है, कवि सब कुछ देख सकता है, शराबी सब कुछ कर सकता है , कौआ सब कुछ खा सकता है . मनुष्य का आचरण ही उसे उच्च व निम्न बनाता है.


कथन-128 : - होनी को नहीं टला जा सकता है. होनी होकर ही रहती है. होनी के वक्त वैसा ही अनुकूल वातावरण बन जाता है, हमारी बुद्धि भी उसके अनुसार ही कार्य करने लगाती है.


कथन-129 : - पुरुषों में नाई, स्त्रियों में मालिन, पक्षियों में कौआ तथा पशुओं में गीदड़ को धूर्त माना गया है. हमें इनसे बचना चाहिए. ये अनावश्यक ही किसी का कार्य बिगाड़ने में रुचि रखते है.


कथन-130 : - प्राप्त धन, भोजन और अपनी स्त्री में ही संतोष करना चाहिए लेकिन ज्ञानार्जन, तप और दान करने में कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए. इन्हें लगातार बढ़ाते रहना चाहिए.


कथन-131 : - कर्म, विद्या, संपत्ति, आयु और मृत्यु. मनुष्य को ये पाँचों चीजें गर्भधारण के समय ही मिल जाती है.


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