आहार और आचरण
सेठ धर्मचंद पिछले पन्द्रह दिनों से अपने आप को बड़ा असहज महसूस कर रहे थे. अपनी मानसिक उलझन को उन्होंने सेठानी को भी बताया परन्तु सेठानी सेठ जी की उलझन दूर करने में कोई मदद नहीं कर पा रही थी. उलझन का कारण था,लगभग प्रत्येक रात में स्वप्न में वे भिन्न-भिन्न बस्तियों में छोटी संकरी गलियों में अपने लिए एक अलग छोटे से मकान की तलाश में भ्रमण करते थे.
चूंकि सेठ जी विरासत में प्राप्त एक बहुत सुंदर और बड़ी हवेली में रहते थे,
ऐसे में, सेठ जी को अपने लिए एक मकान की भला क्यों कर आवश्यकता होगी?
शुरू में पांच सात दिन उन्होंने इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया क्योंकि दिन में अपने कारोबार में बहुत व्यस्त रहते थे परन्तु जब यही सिलसिला लम्बा चला तो सेठ जी परेशान रहने लगे. यह कोई बीमारी भी नहीं थी की किसी चिकित्सक से उसका इलाज कराते. अतः उस मनोदशा को सहने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
उनके यहाँ भोजन बाहर से आने वाली एक माई बनाया करती थी. वह अपने जिस मकान में गुजर बसर करती आ रही थी वह मकान मजबूरन उसे छोडना पड़ रहा था. वह काम से फारिग होकर रोज मकान की तलाश में शहर के गली मोहल्लों में भटकती फिरती थी. मकान खाली करने के लिए दिया गया एक मास का समय उसका पूरा होने को था. रोज-रोज की किल्लत से बचने के लिए वह हैसियत न होते हुए भी छोटा-मोटा पुराना मकान खरीद लेना चाहती थी.
वह सेठ जी के यहाँ पिछले बीसियों सालों से सेवा करते हुए विश्वासपात्र बन चुकी थी.
अंत में एक मकान उसे जब जंच गया तो उसने अपने साहूकार सेठ धर्मचंद से 50 हजार रुपया देने की प्रार्थना की.
सेठ जी ने किसी प्रकार की हील हुज्जत न करते हुए माई को 50 हजार रुपये दे दिए. माई ने मकान ले लिया. मकान के लिए उसका भटकना बंद हो गया तो सेठ जी को वह स्वप्न आना भी बंद हो गया. भावार्थ यह की भोजन बनाने वाले की मानसिक स्थिति भोजन करने वाले पर अपना प्रभाव डालती है.
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