कैसी
वाणी कैसा साथ ?
मिश्रा जी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच बहुत प्रसिद्ध थे. उनकी
वाणी, वर्तन तथा मधुर व्यवहार से कालेज के
प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों उन्हें ‘वेद साहब’ से संबोधन करते थे. वैसे भी वे संस्कृत के
प्राध्यापक थे, और उनकी बातचीत
में संस्कृत श्लोक-सुभाषित बार-बार आते थे. उनकी ऐसी बात
करने की शैली थी जिससे सुनने वाले मुग्ध हो जाते थे.
एक दिन विज्ञान के विद्यार्थियों की कक्षा में अध्यापक नहीं थे तो वे वहाँ पहुंच गए. सभी विद्यार्थियों ने खड़े होकर उनका
सम्मान किया और अपने स्थान पर बैठ गए।
कक्षा प्रतिनिधि ने मिश्रा जी से कहा , ” सर , कालेज के समारोहों में हमने आपको कई बार सुना
है. लेकिन आज आपसे करीब से बातचीत करने का मौका मिला है. कृपया संस्कृत साहित्य
में से कुछ ऐसी बातें बताइये जो हमारे दैनिक जीवन में काम आये .
मिश्रा जी मुस्कराए और बोले : ” पृथिव्याम त्रिनिरत्नानि जलं,
अन्नं, सुभाषितम ||
यानी कि अपनी इस धरती पर तीन रत्न हैं – जल,अन्न तथा अच्छी वाणी।
बिना जल तथा अन्न हम जी नहीं सकते, लेकिन सुभाषित या अच्छी वाणी एक ऐसा रत्न है जो हमारी बोली को श्रृंगारित करता
है. हम अपने विचारों को सरलता से तथा स्पष्टता से
सुभाषित द्वारा सभी के सम्मुख रख सकते है.
मिश्रा जी अभी बोल ही रहे थे कि किसी विद्यार्थी ने प्रश्न किया , ” हम वाणी का प्रयोग कैसे करें? तथा
हमें किस तरह के लोगों का संग करना चाहिए ?
” बेटे, तुमने बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया हैं, इसका उत्तर मैं तीन श्लोकों के माध्यम से देना चाहूंगा:
तुम्हारा पहला प्रश्न- वाणी का प्रयोग कैसे करें ?
यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पुर्वमेवाभिभाषते |
स्मितपुर्वाभिभाषी च तस्य लोक: प्रसीदति ||
स्मितपुर्वाभिभाषी च तस्य लोक: प्रसीदति ||
(महाभारत शांतिपर्व ८४/६)
देवों के गुरु बृहस्पति जी हमें इस श्लोक से शिक्षा देते है कि, ’लोक व्यवहार में वाणी का प्रयोग बहुत ही विचारपूर्वक
करना चाहिए. बृहस्पति जी स्वयं भी अत्यंत मृदुभाषी एवं संयत
चित्त है. वे देवराज इन्द्र से कहते है: ‘राजन! आप तो तीनों लोकों के राजा हैं, अतः: आपको वाणी के विषय में बहुत ही सावधान रहना चाहिए. जो व्यक्ति दूसरों को देखकर पहले स्वयं बात करना प्रारंभ करता है और मुस्कराकर ही बोलता है, उस पर सभी लोग प्रसन्न हो जाते है.’
यो हि नाभाषते किंचित सर्वदा भृकुटीमुख: |
द्वेष्यो भवति भूतानां स सांत्वमिह नाचरन ||
द्वेष्यो भवति भूतानां स सांत्वमिह नाचरन ||
(महा. शान्ति. ८४/५)
इसके विपरीत जो सदा भौंहें टेढ़ी किए रहता है, किसी से कुछ बातचीत नहीं करता, बोलता भी है तो टेढ़ी या व्यंगात्मक वाणी बोलता है, मीठे
वचन न बोलकर कर्कश वचन बोलता है, वह
सब लोगों के द्वेष का पात्र बन जाता है.’
अब तुम्हारा दूसरा प्रश्न – हमें किसका संग करना चाहिए ?
सद्भि: संगं प्रकुर्वीत सिद्धिकाम: सदा नर: |
नासद्भिरिहलोकाय परलोकाय वा हितम् ||
नासद्भिरिहलोकाय परलोकाय वा हितम् ||
(गरुड़पु. आ. १०८/२)
देवों के गुरु बृहस्पति जी बताते है कि ‘जो मनुष्य चारों पुरुषार्थ [यानी कि धर्म,
अर्थ, काम तथा मोक्ष] की सिद्धि हो ऐसी चाहत
रखता हो तो उसे सदैव सज्जनों का ही साथ करना चाहिए.
दुर्जनों के साथ रहने से इहलोक तथा परलोक में भी हित
नहीं है.’ ”
मिश्रा जी तथा विद्यार्थियों का संवाद पूरा हुआ और सभी विद्यार्थियों के
मुखमंडल पर आनंद की उर्मि थी, आज सभी विद्यार्थियों को एक
अच्छी सीख मिल चुकी थी।
मित्रों इस कहानी से हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि मधुर वाणी और सज्जन लोगों के
साथ रहकर की व्यक्ति लोक व्यवहार में सफल हो सकता है. लोक व्यवहार भी एक कला ही हे
जिसे हम निरंतर अभ्यास से सीख सकते है.
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